रात को जाने क्या होता हैं हंसने लगती है टीन की चादर पर जब बारिश बजने लगती है आँखों से जब मेले-मेले आँसू बहते हैं मेरे कच्चे घर की मिट्टी, गलने लगती है सारा दिन मैं इस दिल को दफनाता रहता हूँ रात को उठकर ये परछाई, चलने लगती है सावन में तो सारा घर ही सिसकियाँ लेता है दीवारों में एसे सीलन रिसने लगती है करवट लो तो सारे दर्द आवाज़ें करते हैं बूढ़ी रात की हड्डी-हड्डी बजने लगती है चैन आ जाए जब कब्रों में सोने वालों को कब्रों की मिट्टी धीरे-धीरे दबने लगती है नूर छलक़कर गिरता है तो ओक लगता हूँ रात घड़ोंची पर जब चाँद को रखने लगती है