Parka Rakta (Sushi Katha)

· Sushi Katha বই 24 · Storyside IN · Prasad Pandit-এর কণ্ঠে
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हे मूल आपल्या कुशीत जन्माला आलेलं नाही... आपण ते दत्तक घेतलं आहे... त्याचा आपल्याला मुलासारखा सांभाळ करायचा आहे... आपण त्याची जन्मदाती आई नाही आहोत, हे त्याला कधी जाणवता कामा नये... असं सगळं मनाला बजावून, त्यानुसार वर्तणूक करायची, म्हणजे भूमिका निभावणंच की ते, एका प्रकारे! स्वत:च्या मुलाबाबत ज्या मातृसुलभ उत्स्फूर्तपणे या भावना स्वत:च्याही नकळत मनात स्रवू शकतील-पाझरू शकतील, त्या या भूमिकेशी बेमालूमपणे तादात्म्य पावताना निर्माण होत असतील का? कदाचित, दीर्घ सहवासाने ते साध्य होत असेलही, पण त्यासाठी तेवढा सहवास मिळायला हवा. आणि इतकं करून, साध्य 'साधणंच असेल ते! खऱ्या दुधाची चवच माहीत नसलेल्या अश्वत्थाम्याला पीठ कालवलेलं पाणी म्हणजे दूध वाटणं कितीही साहजिक असलं, तरी ते खरं दूध नाही, हे आईला तर माहीत असणारच की! 'आपलं' आणि 'परकं रक्त' यातील द्वंद्वाचा सामना, जाणून घ्या शिरवळकरांच्या हृदयस्पर्शी कथा ऐकून- 'परकं रक्त'!

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